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तन नदी हो, मन नदी हो / अमरेन्द्र

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तन नदी हो, मन नदी हो,
विश्व का आँगन नदी हो !

युग विरोधी भाव कलुषित
आ गये हैं जो, बहे सब,
कूल तो सबके लिए है
दूब, वन, खंजन रहे सब;
भोर उतरे बाँस-वन में
साँझ जो अमराइयों में,
माँ की ममता की झलक हो
रात की परछाइयों में ।
भय न हो, सहमे न कोई,
जो जहाँ हो जन, नदी हो !

रेत की यह रेत अब तो
आ गई देहरी तलक है,
दब न जाए गाँव-घर ये
हो रहा मुझको तो शक है;
क्या करेंगे सप्त सागर
रेत पर घर-गाँव होंगे
जेठ माथे पर उगेगा
आग पर ही पाँव होंगे;
सिर्फ गंगा ही न संग हो,
चीर हो, चानन नदी हो ।