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शिलालेख / योगेंद्र कृष्णा

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युद्ध में शहीद हुए

अज्ञातकुल अपने पति

की आदमकद मूर्ति

गांव के चौराहे पर लगवानी थी

पति की शहादत

शौर्य सृजन और विघ्वंस की

सुनी-देखी अनगढ़ कहानियों

से कौंधती मां की सपाट आंखें

और एक पार्श्र्व-किरदार सरीखी

स्खलित मेरी जिंदगी के बीच

एक गहरा रिश्ता था

जो मेरे भीतर की आग से

लोहे-सा पिघलता

और मेरी रगों में निरंतर रिसता था

मुझे इसकी कीमत

संगमरमर तराशने वाले

कलाकार को चुकानी थी

रिसते हुए बोझ का गट्ठर

गांव के चौराहे पर छोड़ आना था

और इस तरह

झुर्रियों की परतों में से झांकती

जवान मांओं के लिए

लोहा पिघलाने भर

बस थोड़ी-सी आंच सुलगानी थी

लेकिन इसके पहले

इसके बहुत पहले

पूरे गांव को मनाना था

क्योंकि शिलालेख पर

अज्ञात पिता के नाम की जगह

मां का नाम खुदवाना था...