फूलों की बेक़रार निगाहों के आसपास।
क्या वक़्त है कि दीखते आँसू बड़े उदास?
सारी उमर तो ख़्वाब सजाने में काट दी,
क्यों आ रहा है तल्ख़ हक़ीक़त में अब मिठास?
सोचा बहुत-बहुत मगर पहुँचे यहीं पे हम,
सारा जहान आम है, तनहाइयाँ हैं ख़ास।
दिल टूटने लगा है, उसी बुत की याद में,
जिसके लिए न भूख लगी है कभी, न प्यास।
घूमा किए नज़र उन्हीं कूचों में रोज़-रोज़
जिनमें मेरे खु़दाओं ने कुछ दिन किया था वास।
कुछ भी भला नहीं, यहाँ कुछ भी बुरा नहीं,
अपना ही दर्द आ नहीं पाया हमें तो रास।