उड़ने को / हरेकृष्ण डेका
ताल के पास खेतों में
एक झुण्ड हंस उतर आए थे
कलरव करते।
चरते फिरते हंसों के बीच
चकवा-चकई का जोड़ा था एक।
तुम्हारी आँखों देखा था
या अपनी आँखों देखा था?
चकवा-चकई को उड़ना नहीं था।
दोनों एक दूसरे का सामीप्य चाहते थे बस,
पर खिलन्दड़ हंसों में कई
उनके बीच घुसे जाते थे।
थोड़ी देर में कलरव करते हंस
आकाश की ओर उड़ गए थे।
चकवा-चकई चोंच से चोंच मिलाने
में संलग्न हुए।
फिर थोड़ी देर बाद
हंसों का झुण्ड वापस आ
उन दोनों के बीच उतर गया।
हम दोनों ने देखा था।
तुम उस पार थीं, मैं इस पार।
दोनों पार दूसरे कई लोग थे — सभी व्यस्त।
मैंने दो किनारों के बीच
एक सेतु बनाना चाहा था
पर उन व्यस्त लोगों के बीच
जगह न मिली।
उस पार तुम
उड़ जाना चाहती थीं,
इस पार मैं
कामना की जड़ों में उलझ
उड़ने की बात भूल गया था।
चकवा-चकई को हम
अपनी-अपनी आँखों देखने लगे।
हरेकृष्ण डेका की कविता : ’उरिबोर बाबे’ का अनुवाद
शिव किशोर तिवारी द्वारा मूल असमिया से अनूदित