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मेरा गाँव / अमरेन्द्र
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चानन-तट पर बसा हुआ यह मेरा ही है गाँव
जिसका दिन था वासमती और रात कतरनी गमगम
जिसका तपता ग्रीष्म (जेठ) भी सावन का था झम-झम
किस आँधी से जख बाबा के उखड़ गये हैं पाँव ?
इसको थी कंठस्थ कहानी: बिहुला, दुलरा, गोपी
लोरिक, हिरनी-बिरनी, लचिका, महुआ, बिसु, सलेश
बिरजाभार, नयकवा, राजा ढोलन, कथा अशेष
एतनै नै दीना भदरीयो आरो ढेर अलोपी
इसी अंगिका में सतयुग भी, त्रोता इसका बीता
कलयुग में आते-आते इसका दम फूल रहा है
किसका है कंकाल बड़ा बरगद से झूल रहा है
कहीं नहीं रामायण का स्वर, कहीं नहीं है गीता ।
मेरा गाँव मिला है मुझको कर में लिये धुपौड़ी
भगत भेष में मुंह में रक्खे एक बड़ी-सी कौड़ी ।