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मधुमास / अमरेन्द्र
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यह फागुन का मास, रँगे हैं सुग्गे, मैना, हारिल
पोत गया है कोयल पर, भौंरांे पर कोई कालिख
कोविदार, कचनार कनैलों पर है मद का विख
आम्र मंजरी की सुगन्ध से महुआ; जैसे, सिल।
मौलसिरी की माँग भर गयी, अमड़े का जी खट्टा
माधवलता सजी दुल्हन-सी कर के सौ शृंगार
क्या अशोक से कर बैठी है बिन देखे ही प्यार
सहजन फूल मिले वृक्षों पर खूब उड़ाते ठट्ठा ।
क्या अचरज की बात, ताड़ जो शैतानी कर बैठे
उधर खजूरों की नीयत भी साफ नहीं लगती है
कौन कहे नरियर के मन में बात कौन जगती है
ऐसे में अपने ही गुण पर पाटल क्यांे न ऐठे ।
रंगों से रंग गये कमल हैं नीले-पीले लोहित
पोखर में ज्यों तैर रहे कागज के छोटे बोहित ।