भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
वैतरणी का भँवर / अमरेन्द्र
Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:38, 4 मार्च 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अमरेन्द्र |अनुवादक= |संग्रह=साध...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
अरे भाई, वह मंत्राी जी हैं, इसका ख्याल रखो
तुम कहते हो, ‘हुए मंत्राी तो आना भूल गए
पंचसितारा जाकर घर का दाना भूल गए’
दर्शन की इच्छा को भैया वर्षों टाल रखो ।
क्या अखबार नहीं पढ़ते हो, नहीं रेडियो सुनते
क्या टीवी पर नहीं देखते, मंत्राी जी लन्दन में
कल पेरिस में, परसों चीन, मलाया तरसों दन मंे
फुर्सत है उनको (?) पागल हो; अपना माथा खुनते ।
बीस बरस दम मारो भैया, अगर बचा है दम तो
मंत्राी जी कुछ मंत्रा पढ़ेंगे, दुख छूमन्तर होगा
बँधा हुआ सबकी बाँहों पर सुख का मंतर होगा
महामृत्युंजय जाप करो फिलहाल पास है यम तो ।
कैसे हाथ लगेगा भैया सतयुग, द्वापर , त्रोता
कलियुग की वैतरणी में जब डूब रहा नचिकेता ।