भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हमने खुद को नकार कर / रामकुमार कृषक

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:25, 20 मई 2008 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हमने खुद को नकार कर देखा

आप अपने से हार कर देखा


जब भी आकाश हो गया बहरा

खुद में खुद को पुकार कर देखा


उनका निर्माण-शिल्प भी हमने

अपना खंडहर बुहार कर देखा


लोग पानी से गुज़रते हमने

सिर से पानी गुजार कर देखा


हमने इस तौर मुखौटे देखे

अपना चेहरा उतार कर देखा