भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
एक बाबू की आत्मकथा / विनोद शर्मा
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:04, 15 मार्च 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विनोद शर्मा |अनुवादक= |संग्रह=शब्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
मकड़ी के जाले की तरह
मेरे शरीर में फैला हुआ है महानगर
मस्तिष्क में शोर है
और नसों में तनाव
कानों में शिकायतें और डांट-फटकार
नाक में दुर्गन्ध दुर्निवार
और सांसों में धूल और धुएं का गुबार
मेरी आंखें सचिवालय के
क्लॉक-टावर पर जमी हुई हैं
और टांगें राशन की लम्बी
‘क्यू’ में खड़ी हुई हैं
जुबान सिर्फ ‘यस सर’,
‘अभी लाया’ का राग अलापती है
और कलम सिर्फ घिसे-पिटे शब्दों को
दोहराकर दस्तखत करना जानती है
तीस-पैंतीस साल लम्बी नौकरी की सुरंग
कालकोठरीनुमा दफ्तर
फाइलों का अम्बार
और मैं एक बाबू
बीमार
और लाचार।