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एक बाबू की आत्मकथा / विनोद शर्मा

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मकड़ी के जाले की तरह
मेरे शरीर में फैला हुआ है महानगर
मस्तिष्क में शोर है
और नसों में तनाव
कानों में शिकायतें और डांट-फटकार
नाक में दुर्गन्ध दुर्निवार
और सांसों में धूल और धुएं का गुबार

मेरी आंखें सचिवालय के
क्लॉक-टावर पर जमी हुई हैं
और टांगें राशन की लम्बी
‘क्यू’ में खड़ी हुई हैं
जुबान सिर्फ ‘यस सर’,
‘अभी लाया’ का राग अलापती है
और कलम सिर्फ घिसे-पिटे शब्दों को
दोहराकर दस्तखत करना जानती है

तीस-पैंतीस साल लम्बी नौकरी की सुरंग
कालकोठरीनुमा दफ्तर
फाइलों का अम्बार

और मैं एक बाबू
बीमार
और लाचार।