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गळगचिया (54) / कन्हैया लाल सेठिया

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आकड़ै री नान्ही सी‘क कूंपळ नै पींची‘र दग दग कर‘र दुध री तुतकी सी छुटगी। विस री आ दातारी देख र कामधेणु भौम छोड‘र सुरग में जा‘र बसगी !
गुळासाँठ नै जड़ाँमूळ स्यूं उपाड़ गंडासै सूं बोटी काट र जठै तांई घाणी में नही पेल्यो बठै तांई रस छोडणै रो लेेखो ही कांई ? इमरत रो ओ सूमपणूं देख र लिछमी सुरग छोड संदेही धरती पर आ‘र बासो लियो !