भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आ के वो सर झुका गए यूँ ही / विजय किशोर मानव
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:45, 20 मार्च 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विजय किशोर मानव |अनुवादक= |संग्रह=...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
आ के वो सर झुका गए यूं ही
और हम मात खा गए यूं ही
कब से साये की तरह थे सर पर,
हाथ गरदन पे आ गए यूं ही
थे बहुत छोटे पंख, पिंजरों से,
उनको परवाज़ खा गए यूं ही
एक दिन ख़्वाब सेर का देखा,
पैर को ज़ख़्म आ गए यूं ही
उम्र-भर दर्द छिपाकर रक्खे,
आंख में आए, आ गए यूं ही
हम तो चाभी-भरे खिलौने थे
लोग आए, चला गए यूं ही
देख चेहरों पे इश्तहारों को
आंख पर ख़्वाब छा गए यूं ही