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तमसोत्सव / अमरेन्द्र

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जो भी दण्ड मिले भागी हूँ, झूठ नहीं बोलूँगा
मैंने इन नंगे वस्त्रों को अब तक नहीं सराहा
हो सलवार कैफरी, मैंने कभी नहीं यह चाहा
बरमूडा पर बूढ़ा मचलै; विष होगा जो लूँगा ।
 
टीवी के पर्दे पर किसका यह बाजार घिनौना
आदिम युग में पहुँच गये हैं सत्युग आते-आते
इस फैशन पर फैशन को भी देखा है शर्माते
ऋषियों के आसन पर किसका फेंका हुआ बिछौना ।
 
कल तक जिससे मुँह ढकता था; अब उससे है काया
जो दृष्टि का पेय बना था, आज उसी का भोजन
अपनी सन्तानों से भारत दूर बहुत; सौ योजन
नगरों में यह नाच रही है कि किस जादू की माया ।
 
सदियों का शृंगार किताबों की अब बातें होंगी,
सच्चा साधू वह अब होगा, जो पक्का हो ढोंगी ।