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पाहुन प्रेत / अमरेन्द्र

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गाँव के जिस बरगद पर बैठा रहता था वह यक्ष
उसी वृक्ष पर बैठ गया है, आ कर प्रेत कहीं से
उलट भाग्य की विकट कथा भी होती शुरु यहीं से
आया तो फिर गया ही नहीं, घोर अमावस पक्ष।

सूखी नदियों पर चाँदी का किसका है यह सेतु
जंगल की छाती पर नीलम पथ चमकीले शोभित
खेतों के हैं हवनकुण्ड से उठते ध्रुम ये लोहित
मठ पर किनके गड़े हुए ये किसिम-किसिम के केतु ।

प्रेत मग्न है देख-देख नदियों पर शहर बसा है
पोखर में नगरों के कचरे का पहाड़ उड़ता है
यक्षथान के साथ-साथ नव अन्न का जी कुढ़ता है
पूनम से पहले राहू ने शशि को पकड़ ग्रसा है।

घाघ-भड्डरी को वनवास मिला है, माटी रोए
खेतों से कोठी तक की महमह परिपाटी रोए ।