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मूर्छित स्वर का गान / अमरेन्द्र

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पीले-पीले गेंदों के दिन, जूही की वे रातें
क्या फिर लौट कभी आयंेंगे इस तपते जीवन में
जाने कैसे उमड़ पड़ी है बात आज यह मन में
चम्पा की यह गन्ध उठी है, या उसकी हैं बातें ?

घिर आते थे स्वप्न मेघ-से मन के मुक्त गगन पर
कुछ उजले कुछ कालिख जैसे; फिर तो उमड़न-घुमड़न
रोम-रोम के कल्पवृक्ष के लास्य रूप का नत्र्तन
अब तो बस कुछ चिन्ह शेष हैं मेरे तन पर, मन पर ।

आज अचानक जाग पड़ी हैं क्यों अतीत की सुधियां
क्यों इच्छाओं की हठात ही नींद उचट आई है
आज कण्ठ में धरती भर की प्यास सिमट आई है
जो मेले में लुटीं, लुट गयीं, लौटेंगी क्या निधियां !

काया के सारे सुर मूर्छित; स्थिर-शांत पवन है
प्राणों के तारों से उठता कैसा यह झनझन है !