भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बदलाव / अमरेन्द्र
Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:11, 23 मार्च 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अमरेन्द्र |अनुवादक= |संग्रह=साध...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
घर तो रहने लायक ही था, भले नहीं है अब
पाँच कोठरी ऊपर-नीचे, रहने वाले पाँच
हिम के भीतर कभी सुलगती देखी तुमने आँच
नये जमाने का अजगुत है प्यारे यह करतब ।
एक कमरे में टेबुल, टी. वी, कुर्सी और पलंग हैं
गुलदस्ता, झालर-फानुस हैं, दर्पण आदमकद है
बिछे हुए कालीन कीमती, पत्नी तो गदगद है
धनतेरस में आए इतने देख पड़ोसी दंग हैं ।
हर कमरे में एक ट्रंक है सामानों की खातिर
बत्र्तन-बासन, छूरी-चम्मच की भरमार लगी है
सच कहता हूँ यह तो जीवन के ही साथ ठगी है
पूंजी का यह ढोंग-दिखावा कितना जालिम-शातिर।
घर में सोते किसिम-किसिम के पंखे, कूलर, इत्र
बाहर में ही खाट लगाए मैं रहता हूँ, मित्र ।