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निवेदन / अमरेन्द्र

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अब इतना मत बरसो बादल जल ही जल हो भू पर
कूल-किनारा कहीं नहीं हो, वृक्ष तलक हों डूबे
घर-खलिहान-महल की क्या है, पर्वत तक हों ऊबे
धसी हुईं नौकाएं रेतों में ताड़ों के ऊपर ।

जीवन जल के भीतर उभ-चुभ, जैसे निकट प्रलय हो
सब आँखों में भय का डेरा, व्याकुल हों नर-नारी
मनु का वंश बचा पाए तब शायद ही अवतारी
आदि प्रलय के कुलदेवी और देवों को संशय हो ।

अब इतना मत बरसो बादल गाँव रेत बन जाए
कोशी गंगा हाथ जोड़ कर माँगे जीवन-दान
देववंश के वंशज की ही मिट जाए पहचान
जगह-जगह पर शिव के ऊपर काली ही दिखलाए ।

बरसो तो इतना भर बरसो, कजरी हृदय लुटाए
शापित बिरही बने विसुध यूं, याद प्रिया की आए ।