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स्नेह अभी है शेष / अमरेन्द्र

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घोर अंधेरा है, रजनी है यम की, दीप जलाओ
कुछ प्रकाश तो देहरी पर उतरे, आँगन में छाए
संध्या से ही सभी दिशाएँ बैठीं आस लगाए
कुछ दीपों को कर में ले कर ऊपर और उठाए ।

यम की रात, द्वार देवों के दीपों से सज जाए
उन दीपों से, जो मिट्टी की सुरभि सुधा से निर्मित
जिन पर माया, मोह, नाश के चिन्ह अनेकों अंकित
वह प्रकाश क्या, जो मुट्ठी भर धरती को नहलाए ।

इन दीपों में स्नेह अभी भी बहुत शेष है, डर क्या
चाहो तो इनको ले कर तुम कोसों जा सकते हो
इतना क्या यमरजनी से भय, बढ़ने से रुकते हो
निकल चलो सन्नाटा चीरे, कितनी रात-पहर क्या !

किसने बिछा रखा है इतना तमस, निकट वह आए
मैं निसंग ही उसके अभिनन्दन में दीप जलाए ।