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शून्य का शेष / अमरेन्द्र

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अपने सुख की खातिर अपनी दुनिया भूल गये
थे पराग के कण ही जिनको रहा समझता रेत
आखिर तक ही चढ़ा रहा कंधे पर पागल प्रेत
झूला समझा, फाँसी थी; फाँसी पर झूल गये ।

अपनी मिट्टी, अपना पानी, अपना घर और देश
अपनी वाणी, अपनी बातों से ही किए किनारा
दूर गगन पर श्याम पड़ा-सा डोल रहा ध्रुवतारा
जाना सब कुछ, जबकि शून्य में टंगा हुआ था शेष ।

थकी हुई हैं आँखें, लेकिन नींद नहीं आती है
कजरोटी के काजल में क्या छुपा हुआ है भोर
सुर को कितनी व्याकुलता से खोज रहा है शोर
तीन पहर की माया भी यह कितनी भरमाती है ।

इस अरण्य के घोर तमस में कहाँ मुक्ति है अब तो
अपने जो थे छूट गये हैं; मिट्टी-पानी सब तो ।