भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सूरज का रथ खींचो / अमरेन्द्र
Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:30, 23 मार्च 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अमरेन्द्र |अनुवादक= |संग्रह=साध...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
छट जाए तम घिरा हुआ यह, घिरता हुआ अंधेरा
अभी-अभी तो भोर हुआ है, उठा नहीं है सूरज
अभी सरोवर में खोए-से खिले नहीं हैं पंकज
कौन अघोरी डाल रहा किरणों पर तम का फेरा ।
अभी-अभी तो चिड़ियों ने हैं अपनी चोंचें खोली
उड़ने को कुछ इधर-उधर ज्यों, पंख अभी है डोले
कलरव करने को शावक भी चंचू अपने तोले
जाल बिछाए घूम रही है व्याधाओं की टोली ।
नवयुग की आहट कानों में आती दिशा-दिशा से
नागफनी पर देखो तो कुछ फूल खिले दिखते हैं
पहली बार हुआ ऐसा है, पत्थर कुछ लिखते हैं
निकल रही है किरणों की मोहक-सी छटा निशा से ।
आओ धरती भर के लोगो, सूरज का रथ खींचो
अध्र्य चढ़ाने की वेला है, कीचड़ नहीं उलीचो ।