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शुद्ध कविता / अमरेन्द्र

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वह बतलाते हैं मुझको कि कविता बदल गई
नये रूप में, नये छन्द में, भाव नया, गति नव है
रस के साथ चले जो कविता, वह कविता क्या; शव है
अलंकार में रचो, अवधि वो कब ही निकल गई ।

अब तो उत्तर वाद-विवादों पर कविता चलती है
अगर विखण्डन का विरोध वह करती है, तो जानो
वह ना आधुनिक हो सकती है, निश्चय ही यह मानो
आज भला क्या रीति-ध्वनि की परिपाटी चलती है ।

कविता शुद्ध वही है जिसका कुछ भी अर्थ खुले ना
शब्दों की माया-नगरी में अर्थ लगे वनजारा
घूम रहा हो अर्थ बाँचने कवि का ही हरकारा
वरना वह तो ऐसा चक्का, कुछ भी हिले-डुले ना ।

अब तो कविता वही कहायेगी जो गोल-मटोल
उसके ही पीछे में होंगे तुतरू, तबला, ढोल ।