भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रात है तो क्या, चले चल / अमरेन्द्र
Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:02, 23 मार्च 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अमरेन्द्र |अनुवादक= |संग्रह=दीपक...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
रात है तो क्या, चले चल,
जुगनुओं से ही मिले चल !
साथ सूरज हो हमेशा
यह भला सम्भव कहाँ है,
एक मुट्ठी रोशनी पर
ओट काजल की यहाँ है;
आदमी तो नीर मरु में
खींच लेता है अकेले,
चल रहा चलना जिसे है
बोझ दुनिया का धकेले;
रुक नहीं हरगिज कभी भी,
दो कदम ही तुम भले चल!
है बड़ी उम्मीद तुमसे
रेत पर बैठी सदी को,
फिर भगीरथ की तरह से
उठ, बुला लाओ नदी को;
भोर की तुम आस मत कर
वह तुम्हारी आस में है,
घाट है नजदीक उतना
जोर जितना प्यास में है;
मत निहारो भाग्य-रेखा,
हाथ को मत यूँ भले चल !