भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

यह हिमानिल रात कम्पित / अमरेन्द्र

Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:07, 23 मार्च 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अमरेन्द्र |अनुवादक= |संग्रह=दीपक...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

यह हिमानिल रात कम्पित,
रोम की बारात कम्पित।

पुतलियों की झील में हैं
स्वप्न के सब मीन ओझल,
क्या शिशिर आया कि झुलसे
प्राण के सब पात कोमल;
ठठरियों में बंध गये हैं
छोड़ कर सुर कीर-कोयल,
सूख कर सरसों हैं काँटें
श्याम, पीले पुष्प रोमल !
कौन-सा संदेश देते
कुन्द के सित गात कम्पित।

क्यों न उत्तर की हवा यह
कुछ भी उत्तर दे रही है,
इतनी लम्बी, इतनी शीतल
रात अपनी तो नहीं है;
हो गया भयभीत वन है
देख कर उन्माद गज का,
तैरता निष्तेज हो कर
रूप जल पर है जलज का;
यूं ठिठुरते तारकों से
हो रहा है प्रात कम्पित ।