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काट लूँगा ये बचे दिन / अमरेन्द्र

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काट लूँगा ये बचे दिन,
और कुछ दिन तो सहे दिन।

इस तरह पहले कहाँ था
सृष्टि का यह रूप अद्भुत
दोपहर, ज्यों माधवी निशि,
ये कुसुम, ये गंध अच्युत;
भोर का शृंगार, छवि का
इस तरह हैं प्राण पुलकित,
जिस तरह पुरबा, सघन घन,
कोहबर में स्वप्न सुरभित।
मन तो वश में ही नहीं है
क्या सुनूं मैं, क्या कहे दिन।

व्योम है या उर्वशी है
रोम का स्पर्श, चन्दन,
शब्द, मुरली से उठे सुर,
है पवन, कचनार का मन।
संधि का यह पत्रा कैसा
है शिशिर, मधुमास भी है,
तुहिन कण से देह कम्पित
जेठ की चिर प्यास भी है;
बोल दूँ मैं अनकही सब
आज जो यह चुप रहे दिन।