भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पुरस्कार / आभा पूर्वे

Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:20, 31 मार्च 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=आभा पूर्वे |अनुवादक= |संग्रह=गुलम...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अंधेरे में एक दीप जलाकर
मैं कब से कर रही हूँ इंतजार
रात का अंधेरा
धीरे-धीरे
बढ़ता रहा
और डसती रही मुझको काली रात
अचानक चली तेज हवा
दीपक बुझ न जाए
हाथों का घेरा बनाए
उसे घेरे रही
इस सोच में
तुम इस अंधेरे में खो न जाओ
और सुबह होने तक
मेरे दोनों हाथों पर
फफोलों के सिवा क्या शेष था।