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महावीर शर्मा के लिए / कांतिमोहन 'सोज़'

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(यह ग़ज़ल महावीर शर्मा के लिए)

तेरी मीना<ref>सुराही</ref> में मेरे प्याले में मय बाक़ी नहीं।
यह तेरी महफ़िल नहीं या तू मेरा साक़ी नहीं॥

मुंतज़िर हूँ मैं कि काशाने को रख़्शंदा<ref>शीशमहल को सजाऊँ</ref> करूँ
क्यूँ कोई उम्मीद सूरत अपनी दिखलाती नहीं।

मैं कहाँ गुम हो गया हूँ क्या बताएगा कोई
ज़िन्दगी आती है लेकिन मुझसे मिल पाती नहीं।

दिल भी आख़िर दोस्त ही निकला किनारा कर गया
अब ज़माने में भरोसे का कोई साथी नहीं।

एक इशारा है जो है वाज़े<ref>स्पष्ट</ref> मेरी तक़दीर पर
ख़ुद समझ लेती है लेकिन मुझको समझाती नहीं।

तीरगी बन ही गई मेरी शरीके-जिन्दगी
घुप अन्धेरा है मगर घर में दिया-बाती नहीं।

कितना लम्बा फ़ासला तय कर लिया है सोज़ ने
इस क़दर तनहा है यादे-यार तक आती नहीं॥

2002-2017

शब्दार्थ
<references/>