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संजीव के लिए / कांतिमोहन 'सोज़'

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(यह ग़ज़ल संजीव के लिए)

ज़माने ने मारे जवां कैसे-कैसे।
ज़मीं खा गई आसमां कैसे-कैसे।।
मजरूह सुलतानपुरी के इस फ़िल्मी गीत पर आधारित ग़ज़ल

न कोई शजर<ref>पेड़</ref> है न कोई समर<ref>फल</ref> है,
चमन को मिले बाग़बां कैसे-कैसे।

गदा बन गए हाकिमे-वक़्त बीसों,
सिकन्दर बने नातवां कैसे-कैसे ।

तवारीख़<ref>इतिहास</ref> है कुछ बयाबां नहीं है,
यहां दफ़्न हैं कारवां कैसे-कैसे।

जो अदना हैं उनका करिश्मा तो देखो,
नुमायां हैं कारे-जहाँ कैसे-कैसे ।

न रोटी की क़िल्लत न महलों के सपने,
हुए फिर भी सूदो-ज़ियां<ref>नफ़ा-नुक़सान</ref> कैसे-कैसे ।

मेरे आँसुओं पर ज़माना हँसा है
मुयस्सर हुए राज़दां कैसे-कैसे ।

न वो हमको समझे न हम उनको जाने,
हमें भी मिले हमज़बाँ कैसे-कैसे ।।

22.03.2017

शब्दार्थ
<references/>