भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हरिपाल त्यागी के लिए / कांतिमोहन 'सोज़'

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:19, 3 अप्रैल 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कांतिमोहन 'सोज़' |संग्रह=दोस्तों...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

(यह ग़ज़ल प्रिय मित्र हरिपाल त्यागी के लिए)

रात काली भी है उदास भी है।
रौशनी उसके आसपास भी है॥

मैं उसे बेवफ़ा तो कहता हूं
उसके जज़्बे का मुझको पास<ref>लिहाज़</ref> भी है।

उसके आने से मिट न जाए कहीं
ये जुदाई जो मुझको रास भी है।

आके एक बार देख ये मंज़र
घुप अन्धेरा भी है उजास भी है।

कल बहारों ने उसको रोक लिया
कुछ ख़बर कुछ मेरा क़यास भी है।

अब तो आ जा अब और देर न कर
अब तो दारू भी है गिलास भी है।

उसके दर से तो उठ चला लेकिन
सोज़ पागल है उसको आस भी है॥

2002-2017

<ref></ref>

शब्दार्थ
<references/>