फिर होता क्यूँ अधिकार-हनन / सोना श्री
नारी जननी जड़-चेतन की,
फिर होता क्यूँ अधिकार-हनन।।
निस्तब्ध खड़े हैं मूक सभी
है नारी मन अवसादग्रस्त,
युग-युग से छली गई नारी
पौरुष सत्ता में तमस त्रस्त,
जो वन-वन छांव बनी भटकी
उसने ही पाया वन-जीवन।
नारी जननी जड़-चेतन की,
फिर होता क्यूँ अधिकार-हनन।।
नौ मास उदर जिसने पाला
जिसने शोणित से सींचा है,
उसके ममतामय आँचल को
हो कामुक नर ने खींचा है,
कुरु-वधु दाव लगी चैसर पर
भरी सभा उतरा देह-वसन।
नारी जननी जड़-चेतन की,
फिर होता क्यूँ अधिकार-हनन।।
कन्या भ्रूण की हत्या होती
है सुता भार पितु के सर पर,
जलती दहेज के दाहक में
क्षण क्षण जीवन लगता दुष्कर,
जो पालनकर्ता, जो लक्ष्मी
उसका ही होता उत्पीड़न।
नारी जननी जड़-चेतन की,
फिर होता क्यूँ अधिकार-हनन।।
उर में पीड़ा चपला-गर्जन
आंदोलित हत अंतर सदाह
कब तक तुम और सहोगी अब
दुख-दावा का दारुण प्रवाह
जागो नारी, होगा विहान
जब सबल करोगी अंतरमन।
नारी जननी जड़-चेतन की,
फिर होता क्यूँ अधिकार-हनन।।