भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दाँत / नीलेश रघुवंशी

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:32, 30 मई 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नीलेश रघुवंशी |संग्रह=घर-निकासी / नीलेश रघुवंशी }} गिरन...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

गिरने वाले हैं सारे दूधिया दाँत एक-एक कर

टूटकर ये दाँत जाएंगे कहाँ?


छत पर जाके फेंकूँ या गाड़ दूँ ज़मीन में


छत से फेंकूंगा चुराएगा आसमान

बनाएगा तारे

बनकर तारे चिढ़ाएंगे दूर से

डालूँ चूहे के बिल में

आएंगे लौटकर सुन्दर और चमकीले

चिढाएंगे बच्चे ’चूहे के दाँत’ कहकर

खपरैल पर गए तो आएंगे कवेलू की तरह

या उड़ाकर ले जाएगी चिड़िया

गाड़ूंगा ज़मीन में बन जाएंगे पेड़

खाएगा मिट्ठू मुझ से पहले फल रसीले

मुट्ठी में दबाए दाँत दौड़ता है बच्चा

पीछे-पीछे दौड़ती है माँ।