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चार शेर / शमशेर बहादुर सिंह

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(जो एक शादी के मौक़े पर कहे गए)


देख की अपनी बेक़सी किसलिए जी में हो खफ़ीफ़

मूनिस हमनवाँ मेरे बेहरो-क़वाफ़ियो-रदीफ़


आज वो हो चुका जो था आपका आशिक़ नज़ार

दौरे-जहाँ से उठ गया हुस्न का परतव लतीफ़


देखना दर पे कौन अभी देता हुआ सदा गया

और काफ़िले-दर्द पर आपका दौलते-शरीफ़


फिर शोरे-अनादिल है, फिर गुंचे परीशाँ हैं :

ए बादे-सबा, लेकर क्या नामए-यार आई?


हर एक शगूफ़ा यह कहता हुआ खिलता है।

"शायद कि बहार आई! शायद कि बहार आई!"

(1945)