(जो एक शादी के मौक़े पर कहे गए)
देख की अपनी बेक़सी किसलिए जी में हो खफ़ीफ़
मूनिस हमनवाँ मेरे बेहरो-क़वाफ़ियो-रदीफ़
आज वो हो चुका जो था आपका आशिक़ नज़ार
दौरे-जहाँ से उठ गया हुस्न का परतव लतीफ़
देखना दर पे कौन अभी देता हुआ सदा गया
और काफ़िले-दर्द पर आपका दौलते-शरीफ़
फिर शोरे-अनादिल है, फिर गुंचे परीशाँ हैं :
ए बादे-सबा, लेकर क्या नामए-यार आई?
हर एक शगूफ़ा यह कहता हुआ खिलता है।
"शायद कि बहार आई! शायद कि बहार आई!"
(1945)