सूरज की बेटी / महेश सन्तोषी
हमारा अपना कोई घर नहीं था
हमारे पास किराये की एक झुग्गी थी,
सूरज की थोड़ी सी भी धूप
हमें सड़क तक आने पर ही दिखती थी,
जन्म से ही बड़े फासले पर थी
हमसे दुनिया की सारी रोशनियाँ
पर हम में, एक दिन सूरज की एक बेटी
बनने की बड़ी हिम्मत तो थी।
जाने क्यों सूरज के सहस्रों बेटे तो होते हैं?
एक भी बेटी नहीं होती!
अगर मैं उससे यह प्रश्न पूछ पाती
तो पूछती, गले मिलती, जी भर कर रोती,
वह तो बराबर-बराबर बाँटता है
सबको अपनी धूप, अपना उजाला
फिर भी दुनिया की करोड़ो दुखतरों को
आधी रोशनी भी नसीब नहीं होती!
झुग्गियों में रहकर भी हमने सपने बोये
जिन्दगी नहीं ढोयी, पीठ पर स्कूल के बस्ते ढोये,
एक उजली हँसी ही हँसती रहा हमारा बचपन
ना हम अँधेरों में रोये, ना अकेले में रोये,
बहुत सी अनबुझी भूख को
हमने उपास का नाम देकर, एक झूठा सम्मान दिया
कोई नहीं जान सका
कब हम भूख से सो नहीं पाये?
कब हम थके-थके भूखे ही सोये?
दो-तीन घरों के रोज के कपड़े धोते
एक दिन शुरू हुआ
हमारा कॉलेज का सफर
बिना फिसले हमने फिसलते फर्श धोये
धोकर कुछ और चमकाये, चाँदी से चमकते घर।
पसीने से लथपथ बचपन, लिखता भी रहा
पढ़ता भी रहा, जिन्दगी की इबारतें
सुबह हमारे हाथ में कॉलेज की किताबें रहीं
दोपहरिया गिनती रही, शाम के, काम के रसोईघर
झुग्गियों की कई बस्तियों से होकर गया
पर हमें मिल ही गया, संकल्पों के उदयाँचल का रास्ता
जिसके जीवन में कर्म ही धर्म हो
वह न नक्षत्रांे को पूजता, न प्रारब्ध को पहचानता,
संघर्षों के चौराहों पर भटकती रह गयीं
हथेलियों की अंधी, अँधेरी रेखाएँ,
आज सूरज की बेटी के घर से ही होकर जाता है
सूरज-नगर तक का सीधा रास्ता