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फिर किसी को / शमशेर बहादुर सिंह
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फिर किसी को इक दिले-काफ़िर अदा देता हूँ मैं
ज़िन्दा हूँ और अपने ख़ालिक को दुआ देता हूँ मैं
बेख़ुदी में दर्द की दौलत लुटा देता हूँ मैं,
'जब ज़ियादा होती है मय तो लुँढ़ा देता हूँ मैं'।*
अपनी ही क़द्रे-ख़ुदी की पुरतक़ल्लुफ़ लज़्ज़ते--
आप क्या लेते हैं मुझसे और क्या देता हू`म मैं!
इश्क़ की मज़बूरियाँ हैं, हुस्न की बेचारगी :
रूए आलम देखिएगा ? आइना देता हूँ मैं।
इल्मो-हिक़मत, दीनो-ईमाँ, मुल्को-दौलत, हुस्नो इश्क़
आपको बाज़ार से जो कहिए ला देता हूँ मैं ।
आरज़ूओं की बियाबानी है और ख़ामोशियाँ
ज़िन्दगी को क्यों सबाते-नक़्शे-पा देता हूँ मैं?
- स्व. लक्ष्मीचंद जी से सुना हुआ मिसरा!
(रचनाकाल : 1943)