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फिर निगाहों ने तेरी / शमशेर बहादुर सिंह

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फिर निगाहों ने तेरी दिल्में कहीं चुटकी ली

फिर मेरे दर्द ने पैमान वफ़ा का बांधा


और तो कुछ न किया इश्क़ में पड़कर दिल ने

एक इन्सान से इन्सान वफ़ा का बांधा!


एक फ़ाहा भी मेरे ज़ख़्म पे रक्खा न गया

और सर पे मेरे एहसान दवा का बांधा


इस तकल्लुफ़ की मोहब्बत थी कि उठते ही बनी

रंग यारों ने वो मेहमानसरा का बांधा।


मौसमे-अब्र में आता है मेरे नाम ये हुक्म

कि ख़बरदार जो तूफ़ान बला का बांधा।


मुस्कुराते हुए वो आए मेरी आँखों में--

देखने क्या सरोसामान क़ज़ा का बांधा!


(रचनाकाल : 1952)