जब नयनों में सूनापन था,
जर्जर तन था, जर्जर मन था
तब तुम ही अवलख हुए थे मेरे, एकाकी जीवन के!
जाओ कल्पित साथी मन के!
सच, मैनें परमार्थ ना सीखा,
लेकिन मैनें स्वार्थ ना सीखा,
तुम जग के हो रहो न बंदी मेरे भुजबंधन के!
जाओ कल्पित साथी मन के!
जाओ जग में भुज फ़ैलाए,
जिसमें सारा विश्व समाए,
साथी बनो जगत में मुझसे अगणित दुखिया जन के!
जाओ कल्पित साथी मन के!