भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कहता है बाजुओं का ज़ोर / शमशेर बहादुर सिंह

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:02, 3 जून 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शमशेर बहादुर सिंह |संग्रह=सुकून की तलाश / शमशेर बहादुर ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कहता है बाजुओं का ज़ोर, सारे जहाँ को तोलकर

मालिके-दो जहाँ! इधर देख के मेरा मोल कर!


आज भी हैं वो मनचले, आज भी हैं वो सिरफिरे

तीरो-सनाँ की बाढ़ पर, चलते थे सीना खोलकर!


इसमें तो आग है बहुत, इसका तो ख़ून गर्म है--

बोले वो रख के दिल पे हाथ, और जिगर टटोलकर।


बातों में अपने रंग ला, लहज़े को शोख़तर बना

शर्तों को लोचदार रख, वादों को गोलमोल कर !!


तर्ज़े-अदा इशारा हो, अब ये नहीं तरीके-फ़न

राज़ की बात भी कहो, 'शम्स', तो साफ़ खोलकर!