Last modified on 20 मई 2017, at 22:56

हलाल की मुर्गी / राम सेंगर

Abhishek Amber (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:56, 20 मई 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राम सेंगर |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> यह हल...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

यह हलाल की मुर्गी
कब तक खैर मनाए जान की।
कब गर्दन पर पड़े गँड़ासा
मर्जी है भगवान की।
धर्म न नैतिकता सत्ता की
बजे हुक्मनामों की तूती
जनादेश के ढोल-मजीरे
जनता यहाँ पाँव की जूती
दिए-लिए की पंचायत है
पौ बारह परधान की।
पगड़ी उछले है गरीब की
न्याय अमीरों की रखैल है
लोकतंत्र फूहड़ मजाक है
वही जुआ है, वही बैल है
बात कहाँ रह गई आज वह
दया-धर्म-ईमान की।
जो जीता सो वही सिकंदर
शोभापुरुषों की दिल्ली है
सूझेगी न मसखरी क्यों कर
डंडे पर उनके गिल्ली है
पाँच साल की अधम चराई
फिक्र किसे इनसान की।
लड़े साँड़ बारी का भुरकस
गुड़गोबर हो गई तरक्की
धरती माता बोझ सँभाले
चलती जाय समय की चक्की
बंद पड़ी है जाने कब से
खिड़की नए विहान की।
नौ कनौजिया, नब्बै चूल्हे
ताना-बाना-सूत पुराना
तवा-तगारी बिन भटियारी
बाजी ताँत, राग पहचाना
गुंडे सब काबिज मंचों पर
भाषा है शैतान की।
नीम-बकायन दोनों कड़वे
भ्रम मिठास का टूट रहा है।
महज ठूँठ रह गई व्यवस्था
कुत्ता जिस पर मूत रहा है।
दृश्य फलक पर गहन अँधेरा
रौनक इत्मीनान की।