अकेली ही कब तक
सुन्दर हो के रहे कविता?
अकेली ही कब तक
सौन्दर्य का अविश्रान्त प्रेमी बनती रहे कविता?
जी कर रहा है
आज उसे कुरूप बना डालें|
दुनियाँ की सब से कुरूप राज्यसत्ता में भी
सब से सुन्दर दिखाई दे रही है कविता।
हिंसा के
सब से घिनौने समंदर में नहा कर भी
सब से साफ-पाक हो के निकल रही है कविता।
जी कर रहा है
आज उसे कुरूप बना ही डालेँ।
आओ प्रिय कविजनो!
इस बार कविता को
सुन्दरता की गुलामी से आजाद कराएं
कला के अनन्त बंधनोँ से मुक्ति दिलाये
और देखे-
कविता का दीया बुझ जाने के बाद
किस हद तक अँधियारी दिखाई देगी यह दुनिया
कितनी खोखली हो जाएगी रिक्तता?
फर्क ही क्या है
मन्दिर और बेश्यालय की नग्नता में?
क्या अन्तर है
संसद और श्मशानघाट की दुर्गन्धोँ में?
किस बात पे अलग है
न्यायालयें और कसाई की दुकानें?
इन्हीं सब की दीवारोँ के बाहर
सब से ज्यादा ईमानदार हो खड़ी रहती है कविता।
जी कर रहा है
आज उसे कुरूप बना डालेँ।
आओ प्रिय कविजनोँ!
आज ही घोषणा कर दिया जाये
कविता की मृत्यु की।
और देखें-
कितनी जीवंत दिखाई देगी
अपने ही लाश के ऊपर जन्मी कविता।
देखे
कविता की मृत्यु की खुशी में
किस जुनून तक पगलाएगा बन्दूक,
कितनी दूर तक सुनाई देगा सत्ता का अट्टहास,
कितना फीका दिखाई देगा कला का चेहरा?
सुन्दर कविताएँ लिखने के लिए तो
अभी और भी सुन्दर समय बाकी है।
क्योँ आज मन हो रहा है कि
समय की अन्तिम सीढ़ी तक ना लिखा हुआ
सब से ज्यादा कुरूप कविता लिख डालने का?
जिस तरह बन्दूकेँ
शहीदों के सीने पे लिखा करते हैँ
हिंसा की कुरूप कविताएँ ।
अकेली कब तक
सुन्दर हो के रहे कविता?