भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पागल का गीत / भूपिन / चन्द्र गुरुङ

Kavita Kosh से
Sirjanbindu (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:35, 25 मई 2017 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

देखो, मेरी अंजलि से
जीवन का समुद्र ही चू कर खत्म हो गया है।

मेरे हथेलियों से गिरकर
जीवन का आईना बिखर गया है।

आँखों के अन्दर ही भूस्खलन में दब गए हैं
बहुत सारे सपनें।
यादों के लिए उपहार बताकर
थोडे से सपनें चुरा कर ले गए थे भूलने वाले
न उन सपनों को अपने आँखों में सजाए हैं
न मुझे वापस किये हैं।

दाय रिंगाते रिंगाते उखड आई धुराग्र कि तरह
मोडों को पार करते करते
उखडा हुआ एक दिल है
न उसको ले जाकर छाती में चिपकाने वाला
कोई प्रेमिल हात है
न उसको चिता में फैंकनेवाला
कोई महान आत्मा।

छाती के अन्दर
छटपटाहट का ज्वालामुखी सक्रिय है
बेचैनी का सुनामी सक्रिय है
मैं सक्रिय हूँ–
सड़क में फैले सपनों के टुकडों को जोड्ने केलिए
और आईने में
दुःखों के द्वारा खदेड रहे आपने ही चहरे को देखने।

यह सड़क ही है मेरा पाठशाला
यह सड़क ही है मेरा धर्मशाला
मुझे किस ने पागल बनाया ए बटोही भाई
मेरा बुद्धि/ईश्वर
या इस कुरुप राज्यसत्ता ने?
मैं कैसे गिरा इस सड़क पर
रात को तारों के उतरने वाले घरके छत से?

इसी सड़क पर जमा कूडे में
मैं पाता हूँ मेरे देश का असली सुगन्ध
इसी सड़क पर बहते भीड में
मैं देखता हूँ नङ्गा चल रहा अराजकता
यहीं सड़क पर हमेशा मुलाकात होता है एक बूढे समयके साथ
जो हमेशा हिँसा के बीज बोने में व्यस्त रहता है
इसी सड़क में हमेशा मुलाकात होता है एक जीर्ण देशके साथ
जो हमेशा अपने खोए हुए दिलको ढूँढ्ने मे व्यस्त रहता है।

विश्वास करो या नहीं
आजकल मुझे यह सड़क
पैरों के निशानों के संग्रहालय जैसा लगता है।
मुझे पता है
इसी सड़क से होकर सिंह दरबार पहूँचकर
कौन कितने मूल्य मे खरिदा गया है,
इस सड़क में चप्पल रगडने वालों के पसीने में पिसकर
कितनों ने माथे पे लगाए हैं पाप का चन्दन,
इस सड़क पर
रोने वालों के आँसू के झूले में झूलकर
किस किस ने छुए हैं वैभव का उँचाई
वह भी मुझे मालूम है।

ए बटोही भाई
आप को भी तो मालूम होना चाहिए
प्रत्येक दिन
कितने देशवासियों के आँसू में डूबकर
सुखती है इस सड़क की आँखें?
प्रत्येक रात
कितने नागरिकों के बुरे हातों से चिरकर
तडपता है इस सड़क का हृदय?

पता नहीं क्या नाम जँचेगा इस सड़क के लिए
यह सड़क
थकित पैरों का संग्रहालय बना है
हारे हुए इंसानों के आँसू का नदी बना है
अनावृष्टि में चिरा पड़ा हुआ खेत जैसा
पैने हात के द्वारा फटा हुआ कलाकृति बना है।
कंगाल देश का
डरावना एक्स–रे बना है,
रोगी देश को उठा कर दौड़ रही
केवल एक्बुलेंस बना है।
 
घिनौने उपमाओं में
जो नाम दें तो भी ठीक है इस सड़क के लिए
पर ए बटोही भाई
इस देश को जँचता
मैं एक नया नाम सोच रहा हूँ
मैं एक सुन्दर नाम सोच रहा हूँ।