भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
वन-वन, उपवन / सुमित्रानंदन पंत
Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:46, 6 जून 2008 का अवतरण (New page: {{KKRachna |रचनाकार=सुमित्रानंदन पंत |संग्रह= गुंजन / सुमित्रानंदन पंत }} वन- वन ...)
वन- वन उपवन
छाया उन्मन- उन्मन गुंजन
नव वय के अलियों का गुंजन !
रुपहले, सुनहले, आम्र, मौर,
नीले, पीले औ ताम्र भौंर,
रे गंध-गंध हो ठौर-ठौर
उड़ पाँति-पाँति में चिर उन्मन
करते मधु के वन में गुंजन !
वन के विटपों की डाल-डाल
कोमल कलियों से लाल-लाल,
फैली नव मधु की रूप ज्वाल,
जल-जल प्राणों के अलि उन्मन
करते स्पन्दन, भरते-गुंजन !
अब फैला फूलों में विकास,
मुकुलों के उर में मदिर वास,
अस्थिर सौरभ से मलय-श्वास,
जीवन-मधु-संचय को उन्मन
करते प्राणों के अलि गुंजन !
(जनवरी, 1932)