भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मैं नहीं चाहता चिर सुख / सुमित्रानंदन पंत

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:47, 6 जून 2008 का अवतरण (New page: {{KKRachna |रचनाकार=सुमित्रानंदन पंत |संग्रह= गुंजन / सुमित्रानंदन पंत }} मैं नह...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं नहीं चाहता चिर सुख,
मैं नहीं चाहता चिर दुख,
सुख दुख की खेल मिचौनी
खोले जीवन अपना मुख !

सुख-दुख के मधुर मिलन से
यह जीवन हो परिपूरण;
फिर घन में ओझल हो शशि,
फिर शशि से ओझल हो घन !

जग पीड़ित है अति दुख से
जग पीड़ित रे अति सुख से,
मानव जग में बँट जाएँ
दुख सुख से औ’ सुख दुख से !

अविरत दुख है उत्पीड़न,
अविरत सुख भी उत्पीड़न,
दुख-सुख की निशा-दिवा में,
सोता-जगता जग-जीवन।

यह साँझ-उषा का आँगन,
आलिंगन विरह-मिलन का;
चिर हास-अश्रुमय आनन
रे इस मानव-जीवन का !

(फरवरी,1932)