भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
क्या मेरी आत्मा का चिर धन / सुमित्रानंदन पंत
Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:49, 6 जून 2008 का अवतरण (New page: {{KKRachna |रचनाकार=सुमित्रानंदन पंत |संग्रह= गुंजन / सुमित्रानंदन पंत }} क्या म...)
क्या मेरी आत्मा का चिर धन ?
मैं रहता नित उन्मन, उन्मन !
प्रिय मुझे विश्व यह सचराचर,
तृण, तरु, पशु, पक्षी, नर, सुरवर,
सुन्दर अनादि शुभ सृष्टि अमर;
निज सुख से ही चिर चंचल मन,
मैं हूँ प्रतिपल उन्मन, उन्मन।
मैं प्रेम उच्चादर्शों का,
संस्कृति के स्वर्गिक-स्पर्शों का,
जीवन के हर्ष-विमर्षों का;
लगता अपूर्ण मानव-जीवन,
मैं इच्छा से उन्मन, उन्मन।
जग-जीवन में उल्लास मुझे,
नव आशा; नव अभिलाष मुझे;
ईश्वर पर चिर विश्वास मुझे;
चाहिए विश्व को नव जीवन
मैं आकुल रे उन्मन उन्मन !