भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सुभकामना / जनकराज पारीक

Kavita Kosh से
आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:09, 12 जून 2017 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

थारी कलम री मार
भोत गै'री है यार
म्हांनै अंदर तांई आहत करगी,
सत्ता रो अस्तुति गीत पढ्यो,
आतमा
इकतारै रै तार तरियां सिहरगी,

चार पेट अर चौंसठ दांत
थारी छात तळै पळै
आ तो म्हैं जाणै हो
पण पीढ़िया री जीभ माथै
जिंदा रैवण रा चाह रो बौपार करौला-
म्हारो मन नीं मानै हो।

समै री सकल नै
आपरो चै'रो सूपं'र
थे आ कांई अणहुणीं करग्या
कै लोकलाज नै सरमां मारता
सरकारी अखबार रै
सिरफ अेक सफे में मरग्या।
आखी जूण
आपरी नस नाड़ियां रो
रगत बाळणियां-म्हारा घणमोला मींत।
म्हारी सुभकामनावां स्वीकार करो
कै अभाव अर अकाळ सूं ग्रस्त ई मुलक में
आप भूख सूं नीं
बदहजमी सूं मरो।