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पाने की इच्छा / आनंद कुमार द्विवेदी

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सारा दिन
बार बार
स्मृतियों को
उलट पुलट कर देखता हूँ
हर बार पाता हूँ कि
और और उलझ गयी है मेरी शिनाख्त
रात भये
मंझे से कटी पतंग की तरह गिरता हूँ
बिस्तर पर
जहाँ नींद उलझा देती है
पुरानी चरखी से उतरा हुआ सारा धागा

तुम आगे बढ़ गये हो
सारा कुछ उलझा हुआ छोड़कर
अपनी धवल राहों में
मैं तटस्थ हो गया हूँ समय से
और ढूँढ रहा हूँ,
तुमको ..न...न
बस धागे का एक सिरा
इस बार
बिना टूटे
ये शायद सुलझेगा नहीं !

बड़ी सकारात्मकता से भरी है यह दुनिया
पहाड़ों पर कचरा फेंकती है
और नदियों में मैला
हवा में जहर घोलती है
और दिलों में उदासी
अब तो किसी को खुश देखो तो भी डर लगता है
न जाने इस मुस्कान की कीमत
कितने आँसुओं ने चुकाया हो
आख़िर हर क़दम पर यही तो सिखाया जाता है हमें
प्रेम सिर्फ़ मिटने का नाम है
पाने की इच्छा 'पाप' है

हम ठोकर मारते हैं
इस
अच्छा होने की चाहत को
और ठाठ से हैं
अपने बे शिनाख्त वजूद में ही
तुम्हें पाने की इच्छा (बेशक पाप) के साथ !