भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

झूठे हम / आनंद कुमार द्विवेदी

Kavita Kosh से
Anupama Pathak (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:51, 18 जून 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=आनंद कुमार द्विवेदी |अनुवादक= |सं...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुमने कहा....
प्रेम ही ईश्वर है
मैंने मान लिया
तुमने कहा....
मैं बुद्धू हूँ
पागल हूँ
दीवाना हूँ
मैंने मान लिया
तुमने कहा.....
मैं जब भी तुम्हारे पास होती हूँ
अपने सहज रूप में होती हूँ
अपने स्व में होती हूँ
मैंने मान लिया
तुम तो हर बात साक्षी भाव से देखते थे न
तुमने कहा .....
हमें विधाता ने मिलाया है
ये मिलन अनायास नहीं है
बल्कि ये रूहों का मिलन है
मैंने मान लिया
तुमने कहा .....
तुम न मिलते तो
अपूर्ण ही रहती मैं
मैंने मान लिया |

फिर एक दिन ...
तुमने कहा
हमारा साथ इतने ही दिन का था
मैंने मान लिया
तुमने कहा
तुम्हारे जीवन में मेरी भूमिका पूरी होती है
मैंने मान लिया
फिर तुमने कहा
हमारा मिलना महज़ इत्तेफ़ाक था
मैं चुप रहा
और सोंचता रहा कि
परिवर्तन तो जीवंतता की निशानी है
इससे यही तो साबित होता है कि तुम जीवंत हो
मगर फिर तुमने कहा ....
सोंच लेना हम राह चलते हुए
ऐसे ही 'टकरा' गए थे
उफ्फ़
कैसे कह पाए तुम ये
पहली और अंतिम बात
अंतिम ....जो तुमने कही थी
और पहली ...जिसे मैं मान नहीं पाया ,

और मैं ...
मैंने तो हर बार एक ही बात कही
कि मैं.... तुम्हारे बगैर जी न पाऊंगा,
देखो तो ....
कैसे जीवन ने
हम दोनों को ही
झूठा साबित कर दिया |