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हजारों ख्वाहिशें ऐसी / आनंद कुमार द्विवेदी

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किसी की हँसी में शामिल हो जाऊं
याकि उदास हो जाऊं किसी को उदास जानकार,
ढेर सारी वो बातें सुनूं बैठकर
जिन में मैं कहीं नहीं रहूँ
याकि शामिल हो जाऊं एक लम्बी चुप्पी में,
रो पडू किसी को नाराज करके
याकि हंस दूं जब कोई मुझे नाराज़ समझे,
छुट्टी के दिन भी फोन को दिन भर चिपकाए घूमूं,
यह जानते हुए भी कि कोई फोन या मैसेज नहीं आएगा,
हज़ार उपाय करूँ किसी की नज़र में अच्छा होने के लिए
याकि बुरा हो जाऊं किसी की नज़र में
मगर उसका बुरा न होने दूं,
इतना पास रहूँ किसी के कि आदत बन जाऊं
याकि इतना दूर हो जाऊं कि बन जाऊं याद,
 
ऐसी ही अनगिनत छोटी-छोटी चाहतें लिए एक दिन
मर जाऊंगा
किसी बेहद आम इंसान की तरह
ख़ामोशी से बिलकुल गुमनाम....!