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मलाल / नवीन ठाकुर ‘संधि’
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ओछोॅ पूँजी जीहोॅ रोॅ जंजाल,
सोची नै चलभेॅ तेॅ होभेॅ कंगाल।
फुटानी रोॅ कोनोॅ सीमा नै,
पैसा कौड़ी जिम्मा नै।
दिन खाय छीं तेॅ रात नै,
केना पुरैबोॅ घरें नै जाल माल।
जिनगी नै मरन भलोॅ,
हरदम कोचवात झगड़ा भेलोॅ।
आबेॅ तेॅ देह बीकै लेॅ बाँकी रहलोॅ,
बड़ोॅ बच्चा रोॅ भाषण सुनतेॅ कानोॅ भरलोॅ।
जिनगी भर सहलां मलाले-मलाल।
जब्बेॅ तक छेलोॅ पैसा सें भरलोॅ हाथ,
सब्भै करै छेलोॅ बैठी केॅ बात।
छूछा केॅ पूछै केॅ देतौॅ साथ,
ओन-पानी तेॅ पूछेॅ नै, देहोॅ पेॅ मारै लात।
सब्भे दिन "संधि" दुःखेॅ बेहाल।