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गरीब वेश्या की मौत / लीलाधर जगूड़ी

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कल-पुर्जों की तरह थकी टांगें, थके हाथ

उसके साथ


जब जीवित थी

लग्गियों की तरह लंबी टांगें

जूतों की तरह घिसे पैर

लटके होठों के आस-पास

टट्टुओं की तरह दिखती थी उदास


तलवों में कीलों की तरह ठुके सारे दुख

जैसे जोड़-जोड़ को टूटने से बचा रहे हों


उखड़े दाँतों के बिना ठुकी पोपली हँसी

ठक-ठकाया एक-एक तन्तु

जन्तु के सिर पर जैसे

बिन बाए झौव्वा भर बाल


दूसरे का काम बनाने के काम में

जितनी बार भी गिरी

खड़ी हो जा पड़ी किसी दूसरे के लिए


अपना आराम कभी नहीं किया अपने शरीर में


दाम भी जो आया कई हिस्सों में बँटा


बहुतों को वह दूर से

दुर्भाग्य की तरह मज़बूत दिखती थी

ख़ुशी कोई दूर-दूर तक नहीं थी

सौभाग्य की तरह

कोई कुछ कहे, सब कर दे

कोई कुछ दे-दे, बस ले-ले

चेहरे किसी के उसे याद न थे

दीवार पर सोती थी


बारिश में खड़े खच्चर की तरह

ऐसी थकी पगली औरत की भी कमाई

ठग-जवांई ले जाते थे


धूपबत्तियों से घिरे

चबूतरे वाले भगवान को देखकर

किसी मुर्दे की याद आती थी


सदी बदल रही थी

सड़क किनारे उसे लिटा दिया गया था

अकड़ी पड़ी थी

जैसे लेटे में भी खड़ी हो


उस पर कुछ रुपए फिंके हुए थे अंत में

कुछ जवान वेश्याओं ने चढाए थे

कुछ कोठा चढते-उतरते लोगों ने


एक बूढा कहीं से आकर

उसे अपनी बीवी की लाश बता रहा था

एक लावारिस की मौत से

दूसरा कुछ कमाना चाहता था


मेहनत की मौत की तरह

एक स्त्री मरी पड़ी थी


कल-पुर्जों की तरह

थकी टांगें, थके हाथ

उसके साथ अब भी दिखते थे


बीच ट्रैफ़िक

भावुकता का धंधा करने वाला

अथक पुरुष विलाप जीवित था

लगता है दो दिन लाश यहाँ से हटेगी नहीं।