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नैहरा सूझै छै / कैलाश झा ‘किंकर’

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हमेॅ यहाँ पर परेशान छी,
कनियैन केॅ नैहरा सूझै छै।
केना बनतै खाना घर मेॅ ,
हम्मर विपदा नै बूझै छै।।

बच्चे सेॅ ऊ आम चुनै लै
गाछी मेॅ होय जाय छै हाजिर,
नैहरा मेॅ छै बाग-बगीचा
गर्मी छुट्टी बितबै खातिर।
जोर लगैलकै नैहरा जाय के
तनियों नै कुच्छू सुनै छै।

हमरा सिर पर कवि सम्मेलन
केना कवि के स्वागत करबै,
बेटा केॅ भेजलौं आनै लेॅ
कत्ते दुखड़ा सहते रहबै।
बेटबो खाली हाथ लौटलै
कविता केॅ आब के पूछै छै।

गुस्सा मेॅ चललौं आनै लेॅ
कपड़ा लत्ता कुछ नै लेलियै,
मजनूं जैसन हाल बनैने
दौड़ल-दौड़ल सासुर गेलियै।
पतिदेव बेहाल बनल छै
अँगना-अँगना ऊ घूमै छै।