भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ओकरा कोय सनकैने छै / कैलाश झा ‘किंकर’
Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:51, 25 जून 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कैलाश झा ‘किंकर’ |अनुवादक= |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
ओकरा कोय सनकैने छै।
गोरकी भूतनी धैने छै।।
भोरकोॅ वादा साँझ टुटै छै,
रोज जुटै छै, रोज छुटै छै,
कखनो हाँ-हाँ, कखनो ना-ना
कखनो घरवाली केॅ कुटै छै।
लाज शरम तेॅ वर्षों पहिने
धरती मेॅ दफनैने छै।।
बात-बात पर लाठी-सोटा,
माथा भेलै भैंस सेॅ मोटा,
बेटियोॅ केॅ मारै बेदर्दी
दमसाबै छै पकैड़ केॅ झोटा।
माय-बाप केॅ बैंट-चीट के
पहिने सेॅ सलटैने छै।
दुधमुहाँ बेटा काने छै,
गोदी लेली ऊ हानै छै,
बाप लिखै छै चिट्ठी उन्ने
केकरा सेॅ के जानै छै।
घर तेॅ लागै छै बथान सन
तैयो ऊ अनठैने छै।