भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
समय बड़ा कातिल लगता है / अमरेन्द्र
Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:55, 25 जून 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अमरेन्द्र |अनुवादक= |संग्रह=द्वार...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
समय बड़ा कातिल लगता है
कैसे सबका दिल लगता है
जैसा है शासक इससे तो
गुण्डा ही काबिल लगता है
जैसे-जैसे भक्त जुटे हैं
मन्दिर भी महफिल लगता है
जिसको लोग समुन्दर कहते
मुझको वह साहिल लगता है
लोकतंत्रा में लोगों से छल
जैसे अब हासिल लगता है
जनता गेहूं, धान, चना, जौ
नेता सबका मिल लगता है।